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सहस्रार चक्र



साधना की उच्च स्थिति में ध्यान जब सहस्रार चक्र पर या शरीर के बाहर स्थित चक्रों में लगता है तो इस संसार (दृश्य) व शरीर के अत्यंत अभाव का अनुभव होता है |. यानी एक शून्य का सा अनुभव होता है. उस समय हम संसार को पूरी तरह भूल जाते हैं |(ठीक वैसे ही जैसे सोते समय भूल जाते हैं).| सामान्यतया इस अनुभव के बाद जब साधक का चित्त वापस नीचे लौटता है तो वह पुनः संसार को देखकर घबरा जाता है,| क्योंकि उसे यह ज्ञान नहीं होता कि उसने यह क्या देखा है? वास्तव में इसे आत्मबोध कहते हैं.| यह समाधि की ही प्रारम्भिक अवस्था है| अतः साधक घबराएं नहीं, बल्कि धीरे-धीरे इसका अभ्यास करें.| यहाँ अभी द्वैत भाव शेष रहता है व साधक के मन में एक द्वंद्व पैदा होता है.| वह दो नावों में पैर रखने जैसी स्थिति में होता है,| इस संसार को पूरी तरह अभी छोड़ा नहीं और परमात्मा की प्राप्ति अभी हुई नहीं जो कि उसे अभीष्ट है. |इस स्थिति में आकर सांसारिक कार्य करने से उसे बहुत क्लेश होता है क्योंकि वह परवैराग्य को प्राप्त हो चुका होता है और भोग उसे रोग के सामान लगते हैं, |परन्तु समाधी का अभी पूर्ण अभ्यास नहीं है.| इसलिए साधक को चाहिए कि वह धैर्य रखें व धीरे-धीरे समाधी का अभ्यास करता रहे और यथासंभव सांसारिक कार्यों को भी यह मानकर कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं\, करता रहे और ईश्वर पर पूर्ण विश्वास रखे. साथ ही इस समय उसे तत्त्वज्ञान की भी आवश्यकता होती है जिससे उसके मन के समस्त द्वंद्व शीघ्र शांत हो जाएँ.| इसके लिए योगवाशिष्ठ (महारामायण) नामक ग्रन्थ का विशेष रूप से अध्ययन व अभ्यास करें.| उसमे बताई गई युक्तियों "जिस प्रकार समुद्र में जल ही तरंग है, सुवर्ण ही कड़ा/कुंडल है, मिट्टी ही मिट्टी की सेना है, ठीक उसी प्रकार ईश्वर ही यह जगत है." का बारम्बार चिंतन करता रहे तो उसे शीघ्र ही परमत्मबोध होता है,| सारा संसार ईश्वर का रूप प्रतीत होने लगता है और मन पूर्ण शांत हो जाता है. |
जब साधक का ध्यान उच्च केन्द्रों (आज्ञा चक्र, सहस्रार चक्र) में लगने लगता है तो साधक को अपना शरीर रूई की तरह बहुत हल्का लगने लगता है.| ऐसा इसलिए होता है क्योंकि जब तक ध्यान नीचे के केन्द्रों में रहता है (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर चक्र तक), तब तक "मैं यह स्थूल शरीर हूँ" ऐसी दृढ भावना हमारे मन में रहती है और यह स्थूल शरीर ही भार से युक्त है|, इसलिए सदा अपने भार का अनुभव होता रहता है. परन्तु उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से "मैं शरीर हूँ" ऐसी भावना नहीं रहती बल्कि "मैं सूक्ष्म शरीर हूँ" या "मैं शरीर नहीं आत्मा हूँ परमात्मा का अंश हूँ" ऎसी भावना दृढ हो जाती है. |यानि सूक्ष्म शरीर या आत्मा में दृढ स्थिति हो जाने से भारहीनता का अनुभव होता है.| दूसरी बात यह है कि उच्च केन्द्रों में ध्यान लगने से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होती है जो ऊपर की और उठती है|. यह दिव्य शक्ति शरीर में अहम् भावना यानी "मैं शरीर हूँ" इस भावना का नाश करती है, |जिससे पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल का भान होना कम हो जाता है. |ध्यान की उच्च अवस्था में या शरीर में हलकी चीजों जैसे रूई, आकाश आदि की भावना करने से आकाश में चलने या उड़ने की शक्ति आ जाती है,| ऐसे साधक जब ध्यान करते हैं तो उनका शरीर भूमि से कुछ ऊपर उठ जाता है.| परन्तु यह सिद्धि मात्र है, इसका वैराग्य करना चाहिए.
****************************************************************  क्या अनुभव हो सकता है ध्यान में 
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साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं.|हर साधक की अनुभूतियाँ भिन्न होती हैं |अलग साधक को अलग प्रकार का अनुभव होता है |इन अनुभवों के आधार पर उनकी साधना की प्रकृति और प्रगति मालूम होती है |साधना के विघ्न-बाधाओं का पता चलता है | साधना में ध्यान में होने वाले कुछ अनुभव निम्न प्रकार हो सकते हैं |
कई बार साधकों को एक से अधिक शरीरों का अनुभव होने लगता है.| यानि एक तो यह स्थूल शरीर है और उस शरीर से निकलते हुए २ अन्य शरीर.| तब साधक कई बार घबरा जाता है. वह सोचता है कि ये ना जाने क्या है और साधना छोड़ भी देता है.| परन्तु घबराने जैसी कोई बात नहीं होती है |. एक तो यह हमारा स्थूल शरीर है.| दूसरा शरीर सूक्ष्म शरीर (मनोमय शरीर) कहलाता है| तीसरा शरीर कारण शरीर कहलाता है|. सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर भी हमारे स्थूल शारीर की तरह ही है यानि यह भी सब कुछ देख सकता है, सूंघ सकता है, खा सकता है, चल सकता है, बोल सकता है आदि|. परन्तु इसके लिए कोई दीवार नहीं है| यह सब जगह आ जा सकता है क्योंकि मन का संकल्प ही इसका स्वरुप है.| तीसरा शरीर कारण शरीर है इसमें शरीर की वासना के बीज विद्यमान होते हैं.| मृत्यु के बाद यही कारण शरीर एक स्थान से दुसरे स्थान पर जाता है और इसी के प्रकाश से पुनः मनोमय व स्थूल शरीर की प्राप्ति होती है अर्थात नया जन्म होता है.| इसी कारण शरीर से कई सिद्ध योगी परकाय प्रवेश में समर्थ हो जाते हैं |
अनाहत चक्र (हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता ही है |. कई बार साधकों को लगता है जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु निकलकर एक स्थान पर एकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया जो बहुत शक्तिशाली है.| उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है.| इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर कहते हैं.| कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और वह शरीर हमारे स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है.| कभी ऐसा भी अनुभव अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर हमारे स्थूल शरीर से बाहर निकल गया |मतलब जीवात्मा हमारे शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी. ऐसा विचार आते ही हम उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है.| "स्थूल शरीर मैं ही हूँ" ऐसी भावना करने से व ईश्वर का स्मरण करने से वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है.| कई बार संतों की कथाओं में हम सुनते हैं कि वे संत एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं,| ऐसा उस सूक्ष्म शरीर के द्वारा ही संभव होता है. उस सूक्ष्म शरीर के लिए कोई आवरण-बाधा नहीं है, वह सब जगह आ जा सकता है. |यह सब साधना की बेहद उच्च अवस्था में ही होता है |साधना अथवा ध्यान के शुरू के चरणों में तो अधिकतर वही अनुभव होता है जो अलौकिक शक्तियां पेज पर हमने शुरू के दो पोस्टों में लिखा है |हर साधक के साथ हर अनुभव होता भी नहीं |सबके साथ भिन्न भिन्न अनुभव होते हैं |यहाँ लिखे जा रहे अनुभव उनकी एक बानगी मात्र हैं |इनसे अलग -भिन्न और अलौकिक अनुभव भी हो सकते हैं |यहाँ के विभिन्न अनुभव विभिन्न साधकों के विभिन्न अनुभवों पर आधारित हैं जिसे एकत्र कर अलौकिक शक्तियां पेज पर दिया जा रहा है जिससे सामान्य जानकारी मिल सके | 
कई साधकों को किसी व्यक्ति की केवल आवाज सुनकर उसका चेहरा, रंग, कद, आदि का प्रत्यक्ष दर्शन हो जाता है और जब वह व्यक्ति सामने आता है तो वह साधक कह उठता है कि, "अरे! यही चेहरा, यही कद-काठी तो मैंने आवाज सुनकर देखी थी, यह कैसे संभव हुआ कि मैं उसे देख सका?" वास्तव में धारणा के प्रबल होने से, जिस व्यक्ति की ध्वनि सुनी है, |साधक का मन या चित्त उस व्यक्ति की भावना का अनुसरण करता हुआ उस तक पहुँचता है और उस व्यक्ति का चित्र प्रतिक्रिया रूप उसके मन पर अंकित हो जाता है. इसे दिव्य दर्शन भी कहते हैं. | आँखें बंद होने पर भी बाहर का सब कुछ दिखाई देना, दीवार-दरवाजे आदि के पार भी देख सकना, बहुत दूर स्थित जगहों को भी देख लेना, भूत-भविष्य की घटनाओं को भी देख लेना, यह सब आज्ञा चक्र (तीसरी आँख) के खुलने पर अनुभव होता है. |
सूर्य के सामान दिव्य तेज का पुंज या दिव्य ज्योति दिखाई देना एक सामान्य अनुभव है.| यह कुण्डलिनी जागने व परमात्मा के अत्यंत निकट पहुँच जाने पर होता है.| उस तेज को सहन करना कठिन होता है.| लगता है कि आँखें चौंधिया गईं हैं और इसका अभ्यास न होने से ध्यान भंग हो जाता है. |वह तेज पुंज आत्मा व उसका प्रकाश है.| इसको देखने का नित्य अभ्यास करना चाहिए.| समाधि के निकट पहुँच जाने पर ही इसका अनुभव होता है.|
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       स्वर विज्ञानं से कैसे बनायें अपने जीवन को सुखद 
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सवेरे नींद से जगते ही नासिका से स्वर देखें। जिस तिथि को जो स्वर होना चाहिए, वह हो तो बिस्तर पर उठकर स्वर वाले नासिका छिद्र की तरफ के हाथ की हथेली का चुम्बन ले लें और उसी दिशा में मुंह पर हाथ फिरा लें। यदि बांये स्वर का दिन हो तो बिस्तर से उतरते समय बांया पैर जमीन पर रखकर नीचे उतरें, फिर दायां पैर बांये से मिला लें और इसके बाद दुबारा बांया पैर आगे निकल कर आगे बढ़ लें। यदि दांये स्वर का दिन हो और दांया स्वर ही निकल रहा हो तो बिस्तर पर उठकर दांयी हथेली का चुम्बन ले लें और फिर बिस्तर से जमीन पर पैर रखते समय पर पहले दांया पैर जमीन पर रखें और आगे बढ़ लें। यदि जिस तिथि को स्वर हो, उसके विपरीत नासिका से स्वर निकल रहा हो तो बिस्तर से नीचे नहीं उतरें और जिस तिथि का स्वर होना चाहिए उसके विपरीत करवट लेट लें। इससे जो स्वर चाहिए, वह शुरू हो जाएगा और उसके बाद ही बिस्तर से नीचे उतरें।
स्नान, भोजन, शौच आदि के वक्त दाहिना स्वर रखें।
पानी, चाय, काफी आदि पेय पदार्थ पीने, पेशाब करने, अच्छे काम करने आदि में बांया स्वर होना चाहिए। जब शरीर अत्यधिक गर्मी महसूस करे तब दाहिनी करवट लेट लें और बांया स्वर शुरू कर दें। इससे तत्काल शरीर ठण्ढक अनुभव करेगा। जब शरीर ज्यादा शीतलता महसूस करे तब बांयी करवट लेट लें, इससे दाहिना स्वर शुरू हो जाएगा और शरीर जल्दी गर्मी महसूस करेगा। जिस किसी व्यक्ति से कोई काम हो, उसे अपने उस तरफ रखें जिस तरफ की नासिका का स्वर निकल रहा हो। इससे काम निकलने में आसानी रहेगी। जब नाक से दोनों स्वर निकलें, तब किसी भी अच्छी बात का चिन्तन न करें अन्यथा वह बिगड़ जाएगी। इस समय यात्रा न करें अन्यथा अनिष्ट होगा। इस समय सिर्फ भगवान का चिन्तन ही करें। इस समय ध्यान करें तो ध्यान जल्दी लगेगा।
दक्षिणायन शुरू होने के दिन प्रातःकाल जगते ही यदि चन्द्र स्वर हो तो पूरे छह माह अच्छे गुजरते हैं। इसी प्रकार उत्तरायण शुरू होने के दिन प्रातः जगते ही सूर्य स्वर हो तो पूरे छह माह बढ़िया गुजरते हैं। कहा गया है - कर्के चन्द्रा, मकरे भानु।
रोजाना स्नान के बाद जब भी कपड़े पहनें, पहले स्वर देखें और जिस तरफ स्वर चल रहा हो उस तरफ से कपड़े पहनना शुरू करें और साथ में यह मंत्र बोलते जाएं - ॐ जीवं रक्ष। इससे दुर्घटनाओं का खतरा हमेशा के लिए टल जाता है। आप घर में हो या आफिस में, कोई आपसे मिलने आए और आप चाहते हैं कि वह ज्यादा समय आपके पास नहीं बैठा रहे। ऎसे में जब भी सामने वाला व्यक्ति आपके कक्ष में प्रवेश करे उसी समय आप अपनी पूरी साँस को बाहर निकाल फेंकियें, इसके बाद वह व्यक्ति जब आपके करीब आकर हाथ मिलाये, तब हाथ मिलाते समय भी यही क्रिया गोपनीय रूप से दोहरा दें। आप देखेंगे कि वह व्यक्ति आपके पास ज्यादा बैठ नहीं पाएगा, कोई न कोई ऎसा कारण उपस्थित हो जाएगा कि उसे लौटना ही पड़ेगा। इसके विपरीत आप किसी को अपने पास ज्यादा देर बिठाना चाहें तो कक्ष प्रवेश तथा हाथ मिलाने की क्रियाओं के वक्त सांस को अन्दर खींच लें। आपकी इच्छा होगी तभी वह व्यक्ति लौट पाएगा। 
कई बार ऐसे अवसर आते हैं, जब कार्य अत्यंत आवश्यक होता है, लेकिन स्वर विपरीत चल रहा होता है। ऐसे समय में स्वर की प्रतीक्षा करने पर उत्तम अवसर हाथों से निकल सकता है, अत: स्वर परिवर्तन के द्वारा अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए प्रस्थान करना चाहिए या कार्य प्रारंभ करना चाहिए। स्वर विज्ञान का सम्यक ज्ञान आपको सदैव अनुकूल परिणाम प्रदान करवा सकता है।
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 मनुष्य का शरीर जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी तथा आकाश इन पांच तत्वों से निर्मित होता है। और इसमे कोई संदेह नही कि जो चीज जिस तत्व से बनी हो उसमे उस तत्व के सारे गुण समाहित होते हैं। इस लिए पंचतत्वों से निर्मित मनुष्यों के शरीर में जल की शीतलता, वायु का तीब्र वेग, अग्नि का तेज, पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण, ओर आकाश की विशालता समाहित होता है। इस तरह मनुष्य अनंत शक्तियों का स्वामी है तथा इस स्थुल शरीर के अंदर अलौकिक शक्तियाँ छुपी हुई है। परंतु हमारे अज्ञानता के कारण हमारे अंदर की शक्तियाँ सुप्तावस्था में पड़ी हुई है। जिसे कोई भी व्यक्ति कुछ प्रयासों के द्वारा अपने अन्दर सोई हुई शक्तियों को जगाकर अनंत शक्तियों का स्वामी बन सकता है। मनुष्य के अन्दर की सोई हुई इसी शक्ति को ही कुण्डलिनी कहा गया है। कुण्डलिनी मनुष्य के शरीर की अलौकिक संरचना है, जिसके अंदर ब्रह्मंड की समस्त शक्तियाँ समाहित है। अगर सही शब्दों मे कहा जाय तो मनुष्य के अंदर ही सारा ब्रह्मंड समाया हुआ है। आज से हजारों साल पहले गुरू शिष्य परंपरा के अनुसार गुरू अपने शिष्यों की कुण्डलिनी शक्ति को योगाभ्यास तथा शक्तिपात के माध्यम से जागृत किया करते थे। जीसके बाद शिष्य अलौकिक शक्तियों का स्वामी बन कर समाज कल्याण जथा जनहित में इन शक्तियों का सद्उपयोग किया करते थे। कुण्डलिनी जागरण के पश्चात मनुष्य के अन्दर अनेको अलौकिक एवं चमत्कारिक शक्तियों का प्रार्दुभाव होनेे लगता है और मनुष्य मनुष्यत्व से देवत्व की ओर अग्रसर होने लगता है। कुण्डलिनी जागरण के बाद अनेकों चमत्कारिक घटनायें घटने लगती हैं। किसी भी व्यक्ति को देखते हि उसका भुत, भविष्य, वर्तमान साधक के सामने स्पस्ट रूप से दिखाई देने लगता है। साथ ही सामने वाले व्यक्ति की मन की बातें भी स्पष्ट हो जाती हैं। कुण्डलिनी जागृत साधक हजारों कि.मी. दुर घट रही घटनााओं को भी स्पष्ट रूप से देख सकता है और दुर बैठे हुए व्यक्ति की मन की बातें भी पढ़ सकता है। प्राचिन ग्रंथों मे ऐसे अनेकों उल्लेख मिलते है। यह सब कुण्डलिनी जागरण की शक्ति से ही संभव है। कुण्डलिनी जागरण के पश्चात कठिन से कठिन तथा असंभव से असंभव कार्य को भी संभव किया जा सकता है। कुण्डलिनी क्या है मनुष्य के अन्दर छिपी हुई अलौकिक शक्ति को कुण्डलिनी कहा गया है। कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है जिससे जगत मे जीव की श्रृष्टि होती है। कुण्डलिनी सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर मेरूदण्ड के सबसे निचले भाग में मुलाधार चक्र में सुषुप्त अवस्था में पड़ी हुई है। मुलाधार में सुषुप्त पड़ी हुई कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर सुषुम्ना में प्रवेश करती है तब यह शक्ति अपने स्पर्श से स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, तथा आज्ञा चक्र को जाग्रत करते हुए मस्तिष्क में स्थीत सहस्त्रार चक्र मंे पहंुच कर पुर्णंता प्रदान करती है इसी क्रिया को पुर्ण कुण्डलिनी जागरण कहा जाता है। जब कुण्डलिनी जाग्रत होती है मुलाधार चक्र में स्पंदन होने लगती है उस समय ऐसा प्रतित होता है जैसे विद्युत की तरंगे रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घुमते हुए उपर की ओर बढ़ रहा है। साधकांे के लिए यह एक अनोखा अनुभव होता है। जब मुलाधार से कुण्डलिनी जाग्रत होती है तब साधक को अनेको प्रकार के अलौकिक अनुभव स्वतः होने लगते हैं। जैसे अनेकों प्रकार के दृष्य दिखाई देना अजीबोगरीब आवाजें सुनाई देना, शरीर मे विद्युत के झटके आना, एक ही स्थान पर फुदकना, इत्यादि अनेकों प्रकार की हरकतें शरीर मंे होने लगती है। कई बार साधक को गुरू अथवा इष्ट के दर्शन भी होते हैं। कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिए प्रचिनतम् ग्रंथों मे अनेकों प्रकार की पद्धतियों का उल्लेख मिलता है। जिसमें हटयोग ध्यानयोग, राजयोग, मत्रंयोग तथा शक्तिपात आदि के द्वारा कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करने के अनेकांे प्रयोग मिलते हैं। परंतु मात्र भस्रीका प्राणायाम के द्वारा भी साधक कुछ महिनों के अभ्यास के बाद कुण्डलिनी जागरण की क्रिया में पुर्ण सफलता प्राप्त कर सकता है। जब मनुष्य की कुण्डलीनी जाग्रत होती है तब वह उपर की ओर उठने लगती है तथा सभी चक्रों का भेदन करते हुए सहस्त्रार चक्र तक पंहुचने के लिए बेताब होने लगती है। तब मनुष्य का मन संसारिक काम वासना से विरक्त होने लगता है और परम आनंद की अनुभुति होने लगती है। और मनुष्य के अंदर छुपे हुए रहस्य उजागर होने लगते हैं। मनुष्यों के भीतर छुपे हुए असिम और अलौकिक शक्तियों को वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार किया है। आज कल पश्चिमी वैज्ञानिकों के द्वारा शरीर में छुपे हुए रहस्यों को जानने के लिए अनेकों शोध किये जा रहे हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि जिस तरह पृथ्वी के उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों मे अपार आश्चर्य जनक शक्तियों का भंडार है ठीक उसी प्रकार मनुष्य के मुलाधार तथा सहस्त्रार चक्रों मे आश्चर्यजनक शक्तियों का भंडार है। आगामी अंकों में कुण्डलिनी जागरण करने की विधियो को विस्तार पुर्वक लिखने का प्रयास रहेगा जिससे कोइ भी साधक अपनी कुण्डलिनी शक्ति को जगा कर आत्म ज्ञान प्राप्त कर सके।
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यदि अपने चाहनेवालो को इश्वर भी चाहता है तब तो वह इच्छाशून्य नहीं है 

बहुत सुंदर तर्क है ! क्या इश्वर इच्छा का दास है ..? भक्त जबतक इच्छाशून्य न हो जाय तबतक भाग्यहीन है ! इश्वर नित्य नवीन,  पवित्र एवं चैतन्य है ! और चैतन्य में इच्छा..? थोडा सा अटपटा सा लगता है !  इच्छा का स्थान मैं कहा बताऊ..?क्योकि वह तो हर एक मनुष्य में और हर एक स्थान में घुसी हुई है ! प्रतेक दिशामें वह रहती है ! जब तक मनुष्य सो न जाए तब तक वह इच्छा जमीन से असमानकी सैर कर आती है ! जैसा मैं कहता हूँ,वह अत्यंत लघु है परन्तु उसमे अन्धकार इतना है कि उसने सारे संसारको अन्धा कर दिया है ! जहा वह गयी,उसका नाश हो गया ! जिसमे वह बेठ गयी वह नष्ट हो गया ! जब तक मनुष्य सब स्वार्थो का त्याग नहीं करता,तब तक वह उसे नहीं छोडती ! सबमे उसका अस्तित्व ऐसा है जैसा कि सोने,चांदी और ताम्बे में पानी का ! इनमे चाहे जितना खोजो परन्तु पानी का पता नहीं चलेगा ! मगर ज्यो ही आग पे रखो, पिघल कर सब पानी हो जाता है ! इसी तरह जीवजगत अपने अज्ञानसे आश्चर्यमें पड़ा हुआ है ! जब गुरु के उपदेशसे प्रत्क्ष्य हो जाता है तब इश्वर में मिल जाता है !.
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यह नितांत सत्य है, मनुष्य शरीर पांच तत्वोंसे बना है और उन पांचो तत्वोंके अलग अलग धर्म और गुण है ! इन पांचो तत्वोंके गुणों का वर्णन इस प्रकार है !

१. मिट्टी...इसका तत्व नाक है ! उसको घ्राण कहते है ! सुगंध और दुर्गन्धका ज्ञान उसीसे होता है !
२.जल ...इसका तत्व रसना है ! स्वाद उसीसे लिया जाता है ! जलके प्रभावसे शरीर सदा खुश रहता है ! खारा, मीठा,कडवा, स्वाद उसीसे मालूम होते है !
३. अग्नि...इसका तत्व आँख है ! उसे दृष्टि कहते है ! इसमें प्रकाश भरा हुआ है !
४. वायु...इसका तत्व शरीर है ! जिसको त्वक कहते है ! सर्दी,गर्मी,कठोरता,कोमलता का ज्ञान उसीसे होता है !
५.आकाश...इसका तत्व कान है ! इसे श्रोत कहते है ! अच्छे बुरे शब्द इसी श्रोत इन्द्रियसे ही जाने जाते है ! ये ही कान है ! अगर कान न हो तो मनुष्य जड है !
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वासना लोगोके हिरदये में ऐसा ही प्रभाव रखती है जैसा कि वीर्यमें मांस,छिलका,हड्डीया छुपे हुए है ! जितेंद्रिये लोग इच्छाके कारण थक गये है ! (इच्छा ही वासना है !)   थोड़े ही लोग इश्वरीय मार्गमें अंततक पहुचते है !
इच्छाका इतना बड़ा प्रभाव है कि प्राय: महात्माओं सम्मान प्राप्त करनेसे एकदम अलग रखा है ! इच्छाके रूप का क्या वर्णन किया जाय ...?? बाबा ने एक कथा सुनाई थी आपके सन्मुख रख रहा हु, एक संतने बनमें निवास किया ! उसने अपने मनमें ये विचार किया कि किसी से भिक्षा नहीं मांगूगा ! यदि कोई वस्तु अपने आप मिल जाये तो उसको भी अपने हाथसे मुखमें नहीं डालूँगा ! जब कुछ दिन इस प्रतिज्ञा में बीत गये और कुछ खाया नहीं तो इच्छा खूब रोने लगी ! मगर रोनेसे उसे कुछ लाभ नहीं हुआ ! जंगलमें किसी मेवेको या भूख की आग बुझानेवाली किसी वस्तुको उसने नहीं खाया ! जिस बृक्षके नीचे वह संत बेठा हुआ था,उसपर अकस्मात एक कोवा आ बेठा ! रोटी का एक टुकड़ा उसके मुख से नीचे गिरा और संत के सिरपर आ पड़ा ! उसे देखकर मनने इच्छा और उसमे व्याकुलता भी आयी,मगर उस संतने मन को उधर नहीं जाने दिया ! और इन्द्रियोंको उसने कहा की मुझे अलग छोड़ दे ! मैं अपने हाथसे इस रोटीके टुकड़ेको तुझे नहीं दूंगा ! भले तू आकर ले ले ! कहा जाता है कि इश्वरके प्रतापसे अंगूठेके बराबर सफेद चूहे के समान उसके मुँहसे एक प्राणी बाहर आया ! उस रोटी के टुकड़ेमें से थोडा सा खाकर बापस लोटा,जिससे कि उस संतके मुखमे वह प्रवेश करे ! संतने उसे भीतर नहीं जाने दिया ! मुँहको बंदकर लिया और पूछा- तू कोन है..? उसने जवाब दिया कि मैं तेरी इन्द्रियलोलुपता हु जो तुमहें इश्वरसे वंचित रखती है ! फिर पूछा तेरा मालिक कोन है ..?उत्तर दिया -शैतान ! फिर पूछा तेरा निवास कहा है..?? उत्तर दिया परायेपन का अस्तित्व !
संतने कहा, कई दिनोंसे मैंने तुझे भोजन और जल नहीं दिये,तो तू मर क्यों नहीं गयी ..? उत्तर मिला कि जल और भोजनके सिवा और दूसरी चीज़े भी मेरी रोज़ी है -भोज्य वस्तु है जो मेरे जीवन और अस्तित्व का कारण है ! संतने पूछा -वह क्या चीज़े है ..?? उत्तर मिला -उत्तम कर्मका अभिमान ! वह मेरा मुख्य भोजन है ! अपने योग किया और कहा कि अपने हाथसे कोई चीज़ तुझे खाने को नहीं दूंगा ! बस,माई और खुदी (अहम) है जिसने जगत को इश्वरसे अलग कर दिया है ! तेरा अस्तित्व मुझे ज्ञात है वह मच्छरके दानेसे अधिक नहीं ! परन्तु मेरा जीवन तेरे डरके कारण है ! इन्द्रियोंका फरेब,कामेच्छा,गुमराही और भी जितने बुरे काम है वे मेरी रंगे और पुट्ठे है ! इश्वरके लिये इच्छा के सिवा सभी इच्छाए मैं हूँ !        
परन्तु जिसने अपने अहमको नष्ट कर दिया,वह स्वतंत्र हो गया और अपने ध्येय पर पहुँच गया ! मनुष्य अपने अस्तित्वमें उपास्यसे मिल जाता है और उसकी कृपासे उसे प्राप्त कर लेता है,मैंने उसे नष्ट हो जानेके लिये गुरु निश्चित कर दिया ! उस संतने खुदगर्जी हठधर्मीको अपनेमें जाने का मार्ग नहीं दिया और इश्वरसे मिल गया ! सरकार, इच्छा की सूक्ष्मता इतनी अधिक है कि उसका बयान नहीं किया जा सकता ! उसकी पहचान यह है कि जैसे पुष्पमें सुगंध होती है, वह सुगंध अपने आप उठती है और पवनपर सवार हो के चलती है ! जिस स्थानसे वह आती है,आनेके समय उसे उसका ज्ञान नहीं होता ! इसी तरह इच्छाका आना जाना भी किसी पर प्रगट नहीं होता ! जबतक इधर उधर इच्छाओं के लिये स्थान है,तबतक वह इश्वर तक पहुँचने नहीं देती ! क्योकि दुनियामें इन्हीके परिमाणको पुनजन्म कहते है !
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       क्या अनुभव हो सकता है ध्यान में 
ईश्वर के सगुण रूप की साधना करने वाले साधकों को, भगवान का वह रूप कभी आँख वंद करने या कभी बिना आँख बंद किये यानी खुली आँखों से भी दिखाई देने का आभास सा होने लगता है या स्पष्ट दिखाई देने लगता है. |उस समय उनको असीम आनंद की प्राप्ति होती है.| परन्तु मन में यह विश्वास नहीं होता कि ईश्वर के दर्शन किये हैं.| वास्तव में यह सवितर्क समाधि की सी स्थिति है जिसमे ईश्वर का नाम, रूप और गुण उपस्थित होते हैं.| ऋषि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में इसे सवितर्क समाधि कहा है. |ईश्वर की कृपा होने पर (ईष्ट देव का सान्निध्य प्राप्त होने पर) वे साधक के पापों को नष्ट करने के लिए इस प्रकार चित्त में आत्मभाव से उपस्थित होकर दर्शन देते हैं और साधक को अज्ञान के अन्धकार से ज्ञान के प्रकाश की और खींचते हैं|. इसमें ईश्वर द्वारा भक्त पर शक्तिपात भी किया जाता है जिससे उसे परमानन्द की अनुभूति होती है.| कई साधकों/भक्तों को भगवान् के मंदिरों या उन मंदिरों की मूर्तियों के दर्शन से भी ऐसा आनंद प्राप्त होता है.| ईष्ट प्रबल होने पर ऐसा होता है.| यह ईश्वर के सगुन स्वरुप के साक्षात्कार की ही अवस्था है इसमें साधक कोई संदेह न करें | कई सगुण साधक ईश्वर के सगुन स्वरुप को उपरोक्त प्रकार से देखते भी हैं और उनसे वार्ता भी करने का प्रयास करते हैं.| इष्ट प्रबल होने पर वे बातचीत में किये गए प्रश्नों का उत्तर प्रदान करते हैं, या किसी सांसारिक युक्ति द्वारा साधक के प्रश्न का हल उपस्थित कर देते हैं. |यह ईष्ट देव की निकटता व कृपा प्राप्त होने पर होता है. |इसका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए. |साधना में आने वाले विघ्नों को अवश्य ही ईश्वर से कहना चाहिए और उनसे सदा मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए.| वे तो हमें सदा राह दिखने के लिए ही तत्पर हैं परन्तु हम ही उनसे राह नहीं पूछते हैं या वे मार्ग दिखाते हैं तो हम उसे मानते नहीं हैं, तो उसमें ईश्वर का क्या दोष है? ईश्वर तो सदा सबका कल्याण ही चाहते है|.
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अलग मात्रा में उत्पन्न होती हैं ,रासायनिक संरचना और स्राव भिन्न होता है ,अतः सबकुछ भिन्न हो जाता है |ऐसे में उसका खुद का विश्लेषण और खुद का खुद को सुझाव ही अधिक उपयुक्त होता है |खुद में स्थित ईश्वर अधिक उपयोगी होता है |इसलिए आपको खुद की सुनानी चाहिए और इस प्रयोग को जरुर करना चाहिए 
इन सबके लिए आपको करना केवल इतना मात्र है की आप अपने दिन भर के कार्यों से निवृत्त होकर जब सोने के लिए अपने बिस्तर पर जाएँ तो बिस्तर पर पड़े-पड़े अपनी कल्पनाओं को नियंत्रित करें और याद करें की आप कितने बजे सुबह उठे थे |सुबह उठकर आपने क्या-क्या किया था ,कौन कौन से काम किये थे ,किससे किससे क्या क्या बातें की थी |इनमे से आपको क्या करना चाहिए था क्या नहीं करना चाहिए था ` बोलना चाहिए था |कैसा व्यवहार करना चाहिए था ,कैसा नहीं करना चाहिए था |एक बात यहाँ गंभीरता से ध्यान दें की आप अपने दिल की आवाज और भावना को बिलकुल एक तरफ रख दें अन्यथा आपके निर्णय गलत हो सकते हैं |आप केवल अपने अंतर्मन और बुद्धि की आवाज ही सुनें |अंता में आप एक बात बहुत गंभीरता से सोचें की आपके सुबह के समस्त क्रिया कलाप ,बातचीत में कितना आपके लिए भविष्य की दृष्टि से फायदेमंद था ,कितना नुकसानदेय था |सुबह के समय में से कितना समय आपने भविष्य की दृष्टि से सदुपयोग किया और कितना समय का दुरुपयोग हो गया |आपके कार्यों में से कितना आपके काम भविष्य में आएगा और क्या नहीं आएगा |इनमे से किस्मे आपको सुधार करना चाहिए की वह आपके लिए भविष्य में फायदेमंद हो सके |क्या परिवर्तन किया जाना चाहिए की वह भविष्य के लिए लाभदायक हो सके |कैसा व्यवहार करना चाहिए था की परिवार -बच्चों -लोगों पर आपका अच्छा प्रभाव पड़ता ,किस व्यवहार का क्या प्रभाव भविष्य में आएगा ,कैसा व्यवहार हमारे परिवार को किस और ले जाएगा |हमारे निर्णयों में क्या -क्या गलतियाँ हो गयी जो नहीं होनी चाहिए थी अथवा जिनसे हमें बचना चाहिए था अथवा जिनसे हमें नुकसान हो सकता है |किस व्यक्ति से कैसे और क्या बात करनी चाहिए थी ,क्या नहीं करना चाहिए था |क्या जो हमने किया वह पूरी तरह उचित था या कुछ अनुचित हो गया |इस समय आप पूरी तरह स्वार्थी रहें और केवल खुद का और भविष्य की दृष्टि से स्वार्थ देखें |सारे विश्लेषण केवल बुद्धि और अंतर्मन से करे |समस्त विश्लेषण आप तटस्थ होकर करें |करें कुछ नहीं केवल विश्लेषण करें |फिर आप क्रमशः अपने दिन भर के कार्यों और अंततः रात्री के सोने के समय तक का विश्लेषण करें शांत -निर्लिप्त भाव से |फिर केवल एक निश्चय करें कल से आप कोशिश करेंगे की गलतियाँ कम हों |ऐसे कार्यों को प्राथमिकता देंगे जो की भविष्य के लिए लाभदायक हों |आपकी दृष्टि भविष्य को देखते हुए लाभ और हानि पर अधिक होनी चाहिए |फिर आप सो जाएँ |
उपरोक्त क्रिया आप लगातार बिना नागा रोज महीने भर करें |केवल १० मिनट खुद का विश्लेषण करें |१० मिनट से अधिक इसमें नहीं लगेगा |यह आपका आत्मनिरीक्षण है |यह वह उपलब्धियां दे सकता है जो कोई नहीं दे सकता |२४ घंटे के विभिन्न प्रपंचों में से केवल १० मिनट उनके विश्लेषण पर खर्च करें |निश्चित मानिए जीवन बदल जाएगा |अपने बच्चों -परिवार को भी इसके लिए प्रेरित करें ,समझाएं |एक ऐसे परिवार और सदस्यों का निर्माण होने लगेगा जिनमे बहुत कम कमियां होंगी |जिनके हर कार्य सुलझे और सोचे-समझे होंगे |जो आदर्श बनने लगेंगे |आप खुद आदर्श होंगे और आपका परिवार भी आदर्श होगा |आपको आपके भाग्य का पूर्ण फल मिलेगा ,क्योकि गलतियों की सम्भावना बहुत कम हो जायेगी |सोच-कर्म-व्यवहार सब बदल जाएगा |आप कह सकते हैं की यह सब तो हम जानते ही हैं इनमे कौन सी ख़ास बात है |पर फिर भी आप आप इसे करके देखें |आप परिणाम से खुद आश्चर्यचकित रह जायेंगे |आपका ईश्वर जो आपके अन्दर है वह आपको रास्ता दिखाता है ,उन्नति के राह बताता है ,गलतियाँ बताता है ,आप उसकी सुनिए तो सही ,सुनकर देखिये तो सही
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हमारे गुरु या ईष्ट देव हम पर समयानुसार शक्तिपात भी करते रहते हैं. उस समय हमें ऐसा लगता है जैसे मूर्छा (बेहोशी) सी आ रही है या अचानक आँखें बंद होकर गहन ध्यान या समाधि की सी स्थिति हो जाती है, साथ ही एक दिव्य तेज का अनुभव होता है और परमानंद का अनुभव बहुत देर तक होता रहता है. ऐसा भी लगता है जैसे कोई दिव्या धारा इस तेज पुंज से निकलकर अपनी और बह रही हो व अपने अपने भीतर प्रवेश कर रही हो. वह आनंद वर्णनातीत होता है. इसे शक्तिपात कहते है. जब गुरु सामने बैठकर शक्तिपात करते हैं तो ऐसा लगता है की उनकी और देखना कठिन हो रहा है. उनके मुखमंडल व शरीर के चारों तरफ दिव्य तेज/प्रकाश दिखाई देने लगता है और नींद सी आने लगती है और शरीर एकदम हल्का महसूस होता है व परमानन्द का अनुभव होता है. इस प्रकार शक्तिपात के द्वारा गुरु पूर्व के पापों को नष्ट करते हैं व कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करते हैं. ध्यान/समाधी की उच्च अवस्था में पहुँच जाने पर ईष्ट देव या ईश्वर द्वारा शक्तिपात का अनुभव होता है. साधक को एक घूमता हुआ सफ़ेद चक्र या एक तेज पुंज आकाश में या कमरे की छत पर दीख पड़ता है और उसके होने मात्र से ही परमानन्द का अनुभव ह्रदय में होने लगता है. उस समय शारीर जड़ सा हो जाता है व उस चक्र या पुंज से सफ़ेद किरणों का प्रवाह निकलता हुआ अपने शरीर के भीतर प्रवेश करता हुआ प्रतीत होता है. उस अवस्था में बिजली के हलके झटके लगने जैसा अनुभव भी होता है और उस झटके के प्रभाव से शरीर के अंगा भी फड़कते हुए देखे जाते हैं. यदि ऐसे अनुभव होते हों तो समझ लेना चाहिए कि आप पर ईष्ट या गुरु की पूर्ण कृपा हो गई है, उनहोंने आपका हाथ पकड़ लिया है और वे शीघ्र ही आपको इस माया से बाहर खींच लेंगे.
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श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं.| कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है, परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं.| अश्विनी मुद्रा का अर्थ है "अश्व यानि घोड़े की तरह करना". घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है.| इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है.| यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं.| विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. |स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता. |प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए. |इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है,| उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें.| सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती.| मन एकाग्र होता है.| साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे.| जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है.| इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है.| मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है.| इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर - ऊपर की और खींचा जाता है.| यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है.| यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है.| इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं. इन्हें अवश्य करें. ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं. |साधना में अथवा ध्यान में अथवा आराधना में कुछ समय मन को एकाग्रकर इन क्रियाओं को करने से शक्ति प्राप्ति और उन्नति की मात्रा बढ़ जाती है |यही सब छोटी-छोटी तकनीकियाँ हैं जो गुरु लोग अपने शिष्यों को क्रमशः बताते हैं और उनकी सफलता को नियंत्रित और तीब्र करते रहते हैं ,तभी तो कहा जाता है की साधना -आराधना का मार्ग बिना गुरु के अँधेरे में हाथ-पाँव चलाने जैसा ही होता है |सामान्य साधक जो बिना गुरु के साधना करते हैं उनमे से अधिकतर को इन छोटी -छोटी तकनीकियों की जानकारी नहीं होती और बहुत परिश्रम पर भी उपलब्धि की मात्रा कम होती है ,कभी कभी तो शून्य होती है ,क्योकि वह तकनीकियों को जानते ही नहीं की ऊर्जा कैसे बढायें ,कैसे उसे उर्ध्वमुखी करें ,कैसे आने वाली ऊर्जा को नियंत्रित करें ,कैसे प्राप्त ऊर्जा को अपने में समाहित करें |साधना -आराधना केवल हाथ जोड़कर प्रार्थना करना ही नहीं है अथवा मंत्र जप नहीं है |यह ऊर्जा को नियंत्रित कर खुद में समायोजित कर उसका उपयोग साधना की उन्नति में करना है |
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Comments

  1. सागर जी , आपने बहुत सी महत्वपूर्ण जानकारियाँ दी हैं । इसके लिए धन्यवाद् ! आपके साधना अनुभव भी अवश्य ही रहे होंगे ! आप ओशोधारा में आयें .. आपको अवश्य ही और लाभ होगा ... जय ओशो !

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    1. श्री मान जी आपके निमंत्रण के लिए धन्यवाद , मैं इस के आपका आभारी हूँ
      मैं दिल्ली नगर का निवासी हूँ , मुझे ओशो धारा मैं प्रवेश करने हेतु कहा आना होगा कृपया मार्ग दर्शन करे

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    2. This comment has been removed by the author.

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    3. mujhe aap anand8sagar@gmail.com pe mail bhi kar sakte hai

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  2. आप सबसे पहले ओशोधारा का प्रथम तल का कार्यक्रम - ध्यान समाधि जरूर कर लें जिसके करने से आपको ओंकार का रहस्यमय ज्ञान प्राप्त हो जायेगा । फिर आगे का रास्ता आपको गुरुकृपा से स्वयं मिलता चला जायेगा । मैं दिल्ली में मुखर्जी नगर , किंग्सवे कैम्प में रहता हूँ । आप मुझसे मिल भी सकते हैं और फ़ोन (९९१११८१४४८) पर भी संपर्क कर सकते हैं । ओशोधारा का मुख्य आश्रम मुरथल , सोनीपत हरियाणा में है जो दिल्ली से मात्र 50 किलोमीटर दूर है । वहां तीन बुद्धपुरुषों का आप दर्शन पा सकेंगे । आपको मेल पर ओशोधारा की पोस्ट भेजता रहूँगा । मैंने आपका जवाब अभी देखा । हर कार्य का समय निश्चित है । नियति प्रबल है । यह जीवन परम सत्य को जानने के लिए है ।

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  3. यह कुंडली जगरण के बारे मे बताया गया है पर योग के आठ अंग कहे गये है 1 यम 2 नियम 3 आसन 4 प्राणायाम 5 प्रतयाहार 6 धारणा 7 ध्यान और समाधि जो कि सातो चक्र को क्रियान्वय करती हुइ तब जाके सहसत्रार चक्र परम शिव से मिलती है उस समय योगी संसार के बंधन से मुक्त हो जाता है

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