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कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है


श्वास सामान्य चलना और गुदा द्वार को बार-बार संकुचित करके बंद करना व फिर छोड़ देना. या श्वास भीतर भरकर रोक लेना और गुदा द्वार को बंद कर लेना, जितनी देर सांस भीतर रुक सके रोकना और उतनी देर तक गुदा द्वार बंद रखना और फिर धीरे-धीरे सांस छोड़ते हुए गुदा द्वार खोल देना इसे अश्विनी मुद्रा कहते हैं.| कई साधक इसे अनजाने में करते रहते हैं और इसको करने से उन्हें दिव्य शक्ति या आनंद का अनुभव भी होता है, परन्तु वे ये नहीं जानते कि वे एक यौगिक क्रिया कर रहे हैं.| अश्विनी मुद्रा का अर्थ है "अश्व यानि घोड़े की तरह करना". घोडा अपने गुदा द्वार को खोलता बंद करता रहता है और इसी से अपने भीतर अन्य सभी प्राणियों से अधिक शक्ति उत्पन्न करता है.| इस अश्विनी मुद्रा को करने से कुण्डलिनी शक्ति शीघ्रातिशीघ्र जाग्रत होती है और ऊपर की और उठकर उच्च केन्द्रों को जाग्रत करती है.| यह मुद्रा समस्त रोगों का नाश करती हैं.| विशेष रूप से शरीर के निचले हिस्सों के सब रोग शांत हो जाते हैं. |स्त्रियों को प्रसव पीड़ा का भी अनुभव नहीं होता. |प्रत्येक नए साधक को या जिनकी साधना रुक गई है उनको यह अश्विनी मुद्रा अवश्य करनी चाहिए. |इसको करने से शरीर में गरमी का अनुभव भी हो सकता है,| उस समय इसे कम करें या धीरे-धीरे करें व साथ में प्राणायाम भी करें.| सर्दी में इसे करने से ठण्ड नहीं लगती.| मन एकाग्र होता है.| साधक को चाहिए कि वह सब अवस्थाओं में इस अश्विनी मुद्रा को अवश्य करता रहे.| जितना अधिक इसका अभ्यास किया जाता है उतनी ही शक्ति बदती जाती है.| इस क्रिया को करने से प्राण का क्षय नहीं होता और इस प्राण उर्जा का उपयोग साधना की उच्च अवस्थाओं की प्राप्ति के लिए या विशेष योग साधनों के लिए किया जा सकता है.| मूल बांध इस अश्विनी मुद्रा से मिलती-जुलती प्रक्रिया है.| इसमें गुदा द्वार को सिकोड़कर बंद करके भीतर - ऊपर की और खींचा जाता है.| यह वीर्य को ऊपर की और भेजता है एवं इसके द्वारा वीर्य की रक्षा होती है.| यह भी कुंडलिनी जागरण व अपानवायु पर विजय का उत्तम साधन है.| इस प्रकार की दोनों क्रियाएं स्वतः हो सकती हैं. इन्हें अवश्य करें. ये साधना में प्रगति प्रदान करती हैं. |साधना में अथवा ध्यान में अथवा आराधना में कुछ समय मन को एकाग्रकर इन क्रियाओं को करने से शक्ति प्राप्ति और उन्नति की मात्रा बढ़ जाती है |यही सब छोटी-छोटी तकनीकियाँ हैं जो गुरु लोग अपने शिष्यों को क्रमशः बताते हैं और उनकी सफलता को नियंत्रित और तीब्र करते रहते हैं ,तभी तो कहा जाता है की साधना -आराधना का मार्ग बिना गुरु के अँधेरे में हाथ-पाँव चलाने जैसा ही होता है |सामान्य साधक जो बिना गुरु के साधना करते हैं उनमे से अधिकतर को इन छोटी -छोटी तकनीकियों की जानकारी नहीं होती और बहुत परिश्रम पर भी उपलब्धि की मात्रा कम होती है ,कभी कभी तो शून्य होती है ,क्योकि वह तकनीकियों को जानते ही नहीं की ऊर्जा कैसे बढायें ,कैसे उसे उर्ध्वमुखी करें ,कैसे आने वाली ऊर्जा को नियंत्रित करें ,कैसे प्राप्त ऊर्जा को अपने में समाहित करें |साधना -आराधना केवल हाथ जोड़कर प्रार्थना करना ही नहीं है अथवा मंत्र जप नहीं है |यह ऊर्जा को नियंत्रित कर खुद में समायोजित कर उसका उपयोग साधना की उन्नति में करना है | 

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